सल्लेखना के भावपूरित
एक चिर अपराध में मैं डूबता हूँ,
ऊबता हूँ इन विचारों के चरम उपवास में,
यह विरह विलगाव खुद से
खोजता लगाव सबसे
पर कहाँ मिले !
गिरता निरंतर यह भवन मेरे बदन का,
और मन का।
गिरतीं निरंतर सब सरोकारी भीतियाँ।
देखता हूँ उन विचारों की दिशा
ले जा रहे जो मुझ अपाहिज को सदा,
एक मृत्यु के बागान तक।
और ज्यादा ऊबता पर,
इस तरह के उदरप्रेमी
हबसियों के चिर सजीले
‘आत्मीय’ व्यवहार से...
यह विजय भी हाशिए की है,
और है घटिया सदा
चिर-अहिंसक इस चुनिंदा हार से।
सल्लेखना की हार मेरी
जम गई है, बन गई है
धँस गई है
और मन के कुछ कपाटों पर सदा को
फँस गई है।
* जैन धर्म में सल्लेखना या संलेखना उपवास के जरिए प्राप्त किए जाने वाले मरण को कहा जाता है।